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International Journal of Sanskrit Research
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International Journal of Sanskrit Research

2020, Vol. 6, Issue 1, Part D

आत्मदीप-हिन्दी का एक विष्वमानव-काव्य

डॉ. भारती निश्छल

संस्कृत-साहित्य की तरह, हिन्दी-साहित्य में भी, राम और कृष्ण-सम्बन्धी उपजीव्य काव्यों की तरह बौद्ध-साहित्य को उपजीव्य नहीं बनाया गया है। ऐसी स्थिति में आधुनिक-हिन्दी साहित्य के एक समधीत विद्वान् डाॅ. रमाकान्त पाठक ने बौद्ध-साहित्य को उपजीव्य बनाकर ‘बिंबिसार’, ‘यषोधरा’, ‘अंगुलिमाल’, ‘आम्रपाली’, ‘तथागत’ और ‘राजगृह’ की रचनाकर, जिन छहो आत्मसंभाषों की सम्मिलित संज्ञा उन्होंने ‘आत्मदीप’ दी है, उनके द्वारा हिन्दी-साहित्य की समृद्धि हेतु एक उल्लेखनीय कार्य किया है। इन छहो काव्यों में डाॅ0 पाठक ने बौद्ध धर्म को न केवल संन्यासियों के लिए अपितु गृहस्थादि सभी आश्रमों के लिए उपयुक्त ठहराया है तथा सबके लिए व्यावहारिक तथा अनुकरणीय बताया है। कवि के अनुसार, जनक, याज्ञवल्क्य और श्रीकृष्ण द्वारा आचरित त्यागमय भोगपूर्ण आचरणों को ही मध्यकाल में भगवान बुद्ध ने और आधुनिक काल में रमण महर्षि, महात्मा गाँधी और ब्रह्मर्षि विनोबा ने विष्वमानव के कल्याण के लिए श्रेयस्कर बताया है। ‘आत्मदीप’ के सभी आदर्ष पात्र अहिंसा, करुणा, मैत्री आदि जिन मानवीय गुणों से संवलित हैं, वे विष्वमानव के विष्वधर्म के लिए भी स्वीकरणीय और अनुकरणीय हैं।
Pages : 228-230 | 701 Views | 95 Downloads


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How to cite this article:
डॉ. भारती निश्छल. आत्मदीप-हिन्दी का एक विष्वमानव-काव्य. Int J Sanskrit Res 2020;6(1):228-230.

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