भारतीय संस्कृति में मानव जीवन का ध्येय चतुवर्गों की फल प्राप्ति माना जाता है। अतः मानव हमेशा आंकाक्षाओं से परिपूर्ण रहता है। वह हमेशा अपने मनवांछित फल को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। उसके प्रयास कभी सफल होते हैं और कभी कठोर परिश्रम भी उसके कर्म को फल की परिणिति तक नहीं पहुचा पाता। ऐसी स्थिति में मानव जो फल प्राप्त करता है वह आशावादी होकर मेेहतन को यथार्थ मानता है और जिसे विना परिश्रम से फल मिल जाता है वह भाग्य को सर्वस्व मान लेता है तथा जिसे कठोर परिश्रम भी फलदायी परिणाम नहीं देता वह अपनी नियति को ही कोसता है। अतः स्वभाविक रुप से मन में अन्तद्र्वन्द्व होता है कि क्या मेहतन ही फलदायी है ? या फिर सब कुछ पहले से ही नियत है ? इसी का विवेचन मत्स्य पुराण में दैव और पुरुषार्थ के वर्णन मेें किया गया है। मनु द्वारा मत्स्य भगवान से दैव एवं पुरुषार्थ के बारे में पूछे जाने पर मत्स्य भगवान ने दोनों का भेद बताकर पुरुषार्थ की श्रेष्ठता को प्रतिष्ठापित करके मनुष्य को पुरुषार्थ के लिए प्रेरित किया है। ऐसे समय में जब अधिकांश मानव आलस्य से ओत-प्रोत होकर भाग्य के सहारे जीवन जीेने को अपना परम सुख मानते हैं, तो यह विषय अपनी सार्थकता को सिद्ध करके उस पुरुषार्थविहीन समाज को पुरुषार्थ के मार्ग पर लाने में निश्चित ही उपयोगी होगा।