Contact: +91-9711224068
International Journal of Sanskrit Research
  • Printed Journal
  • Indexed Journal
  • Refereed Journal
  • Peer Reviewed Journal

Impact Factor (RJIF): 8.4

International Journal of Sanskrit Research

2015, Vol. 1, Issue 5, Part A

श्रीमद्भगवद्गीता एवं शान्तिपर्व में वर्णित विषाद का स्वरूप

अंतरा जीवन एलकुंचवार

महाभारत के भीष्म पर्व में श्रीकृष्णार्जुन संवाद रूप भगवद्गीता और महाभारत का बारहवा शान्तिपर्व यह दोनों ज्ञान की दृष्टी से अत्यंत श्रेष्ठ है। श्रीमद्भगवद्गीता और शान्तिपर्व इन दोनों की शुरूआत विषाद से ही हुई है। विषाद याने श्खिन्नता, उदासी, उत्साहहीनताश् और युद्ध के प्रारंभ में रणशुर वीर अर्जुन को तथा युद्ध के पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर को इसी तीव्र विषाद ने घेरा था। रणभूमीपर युद्ध हेतु सज्ज हुआ, शत्रुपक्ष के सैन्य का निरीक्षण करने के लिए दोनों सेनाओं के मध्य स्थित अर्जुन कहता है, युद्ध में स्वजन, गुरुजन व सुहृद्जन इनको मारने में न ही मुझे कुछ भला प्रतीत होता है, न मुझे विजय प्राप्ति की इच्छा है, न राज्य की, और न ही सुख प्राप्ति की इच्छा है। हम एक महापाप करने को उद्यत हो रहे है, जिसमें एक राज्य के सुखभोग के लोभ के कारण हम अपने ही संबन्धियों को मारने को तैयार है। कौरव मेरेद्वारा सामना न करते हुए हाथ में शस्त्र लेकर भी मुझ शस्त्रहीन को मारे तो वह भी मेरेलिये अच्छा है।श् इसी प्रकार का विषाद युद्धोपरान्त युधिष्ठिर में दिखाई देता है। युधिष्ठिर कहता है इस सारी पृथ्वीपर विजय प्राप्त हुई है, परन्तु मेरे हृदय में निरन्तर यह महान् दुःख बना रहता है कि मैंने लोभवश अपने बन्धु बान्धवों का महान् संहार करा डाला। यह विजय भी मुझे पराजय सी जान पड़ती है। आत्मीय जनों को मारकर स्वयं ही अपनी हत्या करके हम कौनसा धर्म का फल प्राप्त करेंगे? क्षत्रियों के आचार, बल, पुरुषार्थ और अमर्षको धिक्कार है! जिनके कारण हम ऐसी विपत्तिमें पड़ गये। हमलोग तो लोभ और मोह के कारण राज्यलाभके सुखका अनुभव करनेकी इच्छासे दम्भ और अभिमान का आश्रय लेकर इस दुर्दशामें फँस गये हैं। जिसका प्रायश्चित्तसे अन्त नहीं हो सकता, अतः हमें निस्संदेह नरकमें ही गिरना पड़ेगा। इसप्रकार अत्यंत शोक करनेवाले युधिष्ठिर ने बताया की मैं राज्य का स्वीकार नही करूंगा और वनमें संन्यासी वृत्ति धारण कर, शरीर को क्षीण करते हुए समय व्यतीत करूंगा।श् वास्तविक रूप से श्रीकृष्ण की साहाय्यता से होनेवाला यह धर्म के लिये श्धर्मयुद्धश् है। किन्तु विकारों के अधीन हुए श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन और धर्मराज युधिष्ठिर इन दोनों में विषाद उत्पन्न हुआ है। स्वजनासक्ती के कारण, श्मैं अपने ज्ञातीओं का वध करूंगा या मैंने अपने ज्ञातीओं का वध कियाश्, श्लोग क्या कहेंगे? और इस पापाचरणसे अधोगतिश्, इसप्रकार के असंख्य विचारों से, कर्म से निवृत्ति की ओर अर्जुन और युधिष्ठिर गये हैं। स्वजनासक्ती यह दोनों के विषाद का मूल होते हुए भी, कहीं पर सूक्ष्म रूप से संजय के वक्तव्य का प्रभाव अर्जुन और युधिष्ठिर के विचारों में भासित होता है। इस निबंध में दोनों के विषाद का स्वरूप, उसके कारण और भेद इनपर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। अर्जुन तथा युधिष्ठिर के विषाद के समान हर एक मनुष्य को कभी ना कभी विषाद का सामना करना पडता है, उससमय हम इन दोनों ग्रन्थों के ज्ञान से इस विषाद को पार कर सकते है।
Pages : 11-13 | 1192 Views | 147 Downloads


International Journal of Sanskrit Research
How to cite this article:
अंतरा जीवन एलकुंचवार. श्रीमद्भगवद्गीता एवं शान्तिपर्व में वर्णित विषाद का स्वरूप. Int J Sanskrit Res 2015;1(5):11-13.

Call for book chapter
International Journal of Sanskrit Research
Journals List Click Here Research Journals Research Journals
Please use another browser.